मन में घमण्ड था, गर्व था। कहते हैं न कि हर किसी का घमण्ड टूट जाता है, चकनाचूर हो जाता है। हमारा घमण्ड भी टूटने की कगार पर है।
हम इलाहाबादवासियों को घमण्ड था अपने शहर इलाहाबाद को लेकर, बहुत गर्व की अनुभूति होती थी। शान से कहते थे हमारा इलाहाबाद वृक्षों से भरपूर शान्त शहर है। अनेक ऐतिहासिक विरासत बिछी हुईं हैं। 1857 में जून में स्वतन्त्रता संग्राम में कुछ दिन आजाद भी रहा। चौक का नीम का पेड़ गवाह है स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानियों के बलिदान का।
स्वराज भवन, आनन्द भवन ने स्वतन्त्रता संग्राम की बागडोर सम्भाली। सारी गतिविधियाँ यहीं से संचालित होती थीं। कितनी ही सभाएँ हुईं, गम्भीर मुद्दों पर बहस और कितने महत्त्वपूर्ण निर्णय लिये गए।
भारद्वाज आश्रम का सीधा सम्बन्ध राम वन गमन से है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय की भव्य इमारत अनेक प्रकार के वृक्षों से घिरी, म्योर टावर जो नैनी जेल से भी दिखायी पड़ता है, उसके पास का विशाल अनोखा गुम्बद, ऐतिहासिक घड़ी, जिसकी गूँज कितनी ही दूर तक सुनाई पड़ती थी। हर पन्द्रह मिनट पर एक घण्टा बजना और एक घण्टा पूरा होने पर उतने ही घण्टे बजते थे जितना समय होता था, काल को चेतावनी देती मधुर ध्वनि। विश्वविद्यालय का प्रतीक चिन्ह भी विशाल वट वृक्ष है, विश्वविद्यालय के ‘लोगो’ (Logo) में वटवृक्ष के साथ लिखा है - QUOT RAMI TOT ARBORES (Be the Part of Family) “जितनी शाखाएँ उतने वृक्ष”। यहाँ से ज्ञान प्राप्त करके निकला विद्यार्थी अपने-अपने स्थान पर ज्ञान वृक्ष बन कर फैलेंगे।
आजाद चन्द्रशेखर पार्क जहाँ अमर शहीद चन्द्र शेखर आजाद ने बलिदान दिया था स्वयं अपने ही हाथों अपनी बन्दूक की अन्तिम गोली स्वयं ही कनपटी पर मार ली जिससे अंग्रेज उन्हें जीवित अवस्था में स्पर्श न कर सकें। यहाँ का संग्रहालय जिसमें गाँधी जी और अनेक स्वतन्त्रता सेनानियों की विरासत सुरक्षित हैं।
गंगा यमुना सरस्वती की त्रिवेणी के संगम पर होने वाला कुम्भ तो प्रत्येक इलाहाबादवासी के मन को गर्व से भर देता है जहाँ पर महाराजा हर्षवर्द्धन प्रत्येक वर्ष अपना सब कुछ दान करके जाते थे।
अब यह सोचा जा सकता है कि जब सब गर्व से भरने वाला है तो फिर चिन्ता क्यों?
चिन्ता है - “स्मार्टनेस”, सौन्दर्यीकरण, चौड़ीकरण और पता नहीं किस-किस करण से।
इन सब के नाम पर हर चीज पर कुठाराघात होने लगता है निर्जीव, सजीव जानवर पशु-पक्षी और यहाँ तक मनुष्यों पर भी। रास्ते में आने वाली हर रुकावट दूर की जाती है चाहे वह कैसी ही हो कितनी भी महत्त्वपूर्ण।
आजाद पार्क के पीछे वाली सड़क पन्नालाल रोड भी सौन्दर्यीकरण के दायरे में है जिस पर वर्षों से रहने वालों के पुराने आवास हैं, दुकानें हैं, इसी तरह से हर क्षेत्र में हैं जिसमें इनकी जीवन भर की पूँजी लगी हुई है, वह सब दहशत में हैं कि कहाँ जायेंगे और क्या करेंगे? फरमान जारी करना आसान होता है समस्या कितनी विकट होगी उस पर कोई विचार नहीं। ठेले और पटरी वाले रोज इधर से उधर भागते नजर आते हैं।
पर्यावरण नष्ट हो रहा है, वायु प्रदूषित, जल प्रदूषित, भूमिगत जल-स्तर नीचे जा रहा है, विश्व में पानी की कमी की गम्भीर समस्या उत्पन्न होने जा रही है, वह भी निकट भविष्य में। इन सब पर बड़े-बड़े सम्मेलन होते हैं, बड़ी-बड़ी नीतियाँ बनती हैं लेकिन नतीजा क्या होता है। वही ढाक के तीन पात। स्थिति वहीं की वहीं।
शहर को स्मार्ट होना है तो सड़क चैड़ी होगी, फ्लाई-ओवर बनेंगे, मेट्रो भी चलेंगी। पर कहाँ?
इसके लिए पेड़ कटेंगे और आवश्यकता होगी तो किसानों से खेत भी अधिग्रहीत कर लिये जायेंगे। पेड़ सिर्फ वर्षा ही नहीं कराते, हवा ही नहीं देते, अनजाने में वह बहुत कुछ देते हैं। कितने जीवों के आश्रयदाता। शाम के समय वृक्ष पक्षियों की चहचहाहट से भर जाते हैं उनका वह रैन-बसेरा है, कितने घोसले होते हैं, कितने परिवार बसेरा करते हैं। पेड़ों की जड़ों में भी बिल बनाकर कितने जीव निवास करते हैं। वर्षा में वर्षा-जल जड़ों के सहारे भूमि में जाकर जल-स्तर को बढ़ाता है। लेकिन आधुनिक सभ्यता की देन है कि सड़कों पर, घरों में कहीं कच्ची जमीन नहीं दिखाई दे क्योंकि धूल आयेगी, गन्दगी फैलेगी, पैर कीचड़ में सनेंगे। इसी से सड़क फुटपाथ व घरों के आँगन सब सीमेण्टेड ताकि वर्षा-जल नालियों में जाए और वहाँ से सीधे नालों व नदियों में, फिर समस्या उठायी जाती है कि भूमि-जल स्तर घटता जा रहा है। जब जमीन नहीं सड़क किनारे बड़े छायादार वृक्ष नहीं तो भूमि की प्यास कैसे बुझेगी? वर्षा-जल सहेजा कैसे जायेगा?
सड़कों के किनारे लगे दूर तक दिखाई देते सिर ऊँचा किये हुए कतार में खड़े विशाल वृक्ष मन को आनन्द से भर देते हैं। जैसे आश्वस्त कर रहे हों कि आप यात्रा
तो शुरू करें हम सहारा देंगे। यही सोचकर पहले ऐसे वृक्ष लगाए जाते थे जो भरपूर छाया, हवा व फल दें तथा वातावरण को भी शुद्ध करें।
प्राचीन काल में सुदूर देश से एक यात्रियों का दल भारत आ रहा था उन्हें सलाह दी गयी कि जाते समय वह इमली के वृक्ष के नीचे विश्राम करें तथा इसी की पत्तियों व फल का उपयोग करें। भारत आते-आते वे फोड़े-फुँसियों व चर्मरोग से पीड़ित हो गए। भारत में वैद्य से सलाह लेने पर उसने केवल यही परामर्श दिया कि लौटते समय नीम वृक्ष के नीचे विश्राम करें, नीम की कोमल पत्तियों व उसकी निबोली (फल) का सेवन करें, स्नान करते समय पानी में पत्तियाँ डालें। केवल इसी से ही लौटते-लौटते उनकी सारी व्याधियाँ दूर हो गईं।
प्राचीन समय में अधिकतर यात्राएँ सड़क मार्ग से होती थीं और महीनों चलती थीं। इसी से राजा महाराजा जगह-जगह सराय, प्याऊ की व्यवस्था और सड़क के दोनों तरफ बड़े-बड़े छायादार व फलदार वृक्ष लगवाते थे।
हमारे देश के वृक्षों के औषधीय गुणों को अब पूरा विश्व महत्त्व देने लगा है और लपकना चाह रहा है पेटेण्ट करा कर क्योंकि उन्हें तो हर चीज अपने अधिकार में करने की आदत है। लेकिन यहाँ के ऋषि व वैद्य सैकड़ों वर्षों से इनका महत्त्व जानते थे और उसका प्रयोग करते आ रहे थे तथा उसे लोगों के जन जीवन से भी जोड़ रहे थे। इसी से गाँवों में अब भी हर घर के बाहर नीम का पेड़ और घर के अन्दर तुलसी का पौधा अवश्य होता है। धर्म का जामा पहनाया गया लेकिन मुख्य उद्देश्य था लोग प्रकृति का महत्त्व समझें और उसकी रक्षा करें। पीपल, बरगद आदि बड़े पेड़ों के पास रात में न जायें, मन में डर बैठाया कि भूत रहते हैं लेकिन कारण तो कुछ और ही रहता था। एक तो रात में वृक्ष कार्बन डाइ-ऑक्साइड छोड़ते हैं और दूसरे उनकी घनी छाया में कोई भी जंगली जीव छिपकर बैठ सकता है या बरगद की विशाल जड़ों में उलझ कर चोटिल हो सकता है। अनेक तरह से लोगों को वृक्षों की रक्षा के बन्धन में बाँधा जैसे रात को वृक्ष या पेड़ पौधे सोते हैं उनको हानि न पहुँचाई जाये। भावना यह होती है कि जैसे घर के सदस्य तथा बुजुर्ग का ध्यान रखा जाता है व सम्मान किया जाता है उसी तरह से वृक्षों की भी देखभाल, रक्षा व पूजा की जाये।
भारतीय समाज की अनेक परम्पराएँ, पर्व, संस्कार, वृक्षों, कुओं, नदियों के आस-पास ही सम्पन्न किये जाते हैं। सावन में नीम, पीपल आम के पेड़ों पर पड़े झूले बच्चों को ललचाते ही हैं साथ में बड़ों-बड़ों का भी मन एक दो पेंगे लगाने को ललक उठता है और वे अपने को रोक नहीं पाते। विवाह के अवसर पर कुआँ पूजने का विशेष महत्त्व है जैसे कुआँ गहरा है उसके अन्दर बहुत कुछ छिपा रहता है उसी तरह से गृहस्थ जीवन में भी मन में गम्भीरता लानी होगी मन के अन्दर सब कुछ समाहित कर लेने से ही गृहस्थ जीवन शान्ति व सद्भावना से, सबको जोड़कर चल सकेगा। वृक्षों को कुलदेवता के रूप में पूजा जाता है व प्रार्थना की जाती है परिवार की सुख-समृद्धि की कि, अपनी छाया परिवार पर बनाये रखें। घर के बाहर के बड़े वृक्ष को इस प्रकार पूजा जाता है जैसे कोई परिवार का बड़ा बुजुर्ग बाहर बैठकर देखभाल कर रहा हो।
आँवले के पेड़ के नीचे बना पका कर खाने व खिलाने की परम्परा है। वृक्षों के नीचे दीप जलाकर रखा जाता है मानो किसी भटके हुए राही हो रास्ता दिखाया जा रहा है।
प्रकृति भी कितनी निराली है एक तरफ बिच्छू पौधा दिया जिसके छू-भर जाने से भयंकर खुजली व जलन होती है, दूसरी तरफ उसके ही पास दूसरा पौधा जिसकी पत्तियों का रस लगाने से जलन व दर्द छू मन्तर हो जाता है। वृक्षों के रूप में अपार सम्पदा बिखरी पड़ी है। असंख्य वृक्षों के जड़, मूल, छाल, तना, पत्ते, बीज, फल सब कितने गुणकारी हैं। मानव अपने स्वार्थ व लालच के कारण सब कुछ नष्ट करने में लगा हुआ है। मूर्खों की तरह सोने का अण्डा देने वाली मुर्गी के पेट से एक बार में ही सारे अण्डे निकाल लेना चाहता है नतीजा, न मुर्गी रहेगी और न अण्डे ही।
कोरोना ने लोगों को कुछ तो अपनी जमीन की तरफ मोड़ा है और वह महत्त्व समझने लगा है विदेश से लौटे “योगा” का, घर के अन्दर की तुलसी का, रसोई की हल्दी का, घर के अन्दर बाहर लगे, नीबू, आँवला, गिलोय, अदरख, नीम का और सबसे बढ़कर विटामिन “डी” के लिए सूर्य की रोशनी का क्योंकि उसे अपनी “इम्यूनिटी” बढ़ानी है।
वृक्षों का महत्त्व जानते हुए भी रिकार्ड-स्तर पर रास्तों के किनारों के उन वृक्षों को काटा जा रहा है जो कितने वर्षों पुराने हैं, भरपूर छाया देने वाले वातावरण को शुद्ध करने वाले उनके बदले में जो वृक्ष लगेंगे वे 25-30 वर्षों बाद ही इस स्थिति को प्राप्त हो सकेंगे वह भी कहाँ पर? लम्बी-लम्बी सड़कें व राहें वृक्ष विहीन हो जायेंगी।
हर शहर की अपनी विशेषता होती है उसकी विरासत उसका ऐतिहासिक महत्त्व, प्राचीन इमारतें, बाग-बगीचे, पार्क जिनको उसी रूप में सजाया संवारा जाता है।
आँखों में बसे घने पेड़ों से घिरे रास्ते पार्कों का दृश्य कहीं घर से बाहर निकलते ही धूमिल न हो जाये और हमारा वह घमण्ड भी इसी के साथ टूट कर कहीं बिखर न जाये।
(लेखिका समाजकर्मी एवं स्वराज विद्या सोसाइटी की अध्यक्ष हैं।)