- Fri 16/Apr/2021
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पृथिवी, जल, आकाश (Space), वायु और पावक (अग्नि, ऊर्जा या तेजस्) - ये सब भारतीय जीवन-दर्शन में पाँच परम तत्त्व (पंच महाभूत) माने गये हैं। समूची सृष्टि, प्रकृति और चेतना के स्फुरण, सातत्य और विकास के लिए ये नितान्त आवश्यक है। भूमि को शेष चार अन्य अवयवों की आधारभूता के रूप में सोचा जा सकता है। ज़मीन, हवा, पानी, धूप और आकाश जैसी संजीवनी चीज़ें हमें ईश्वर-प्रदत्त वरदान या नैसर्गिक उपहार के रूप में मिली हुई हैं। अतः हर परिस्थिति में इन मूलभूत पंच महाभूतों पर किसी व्यक्ति, कारोबारी प्रतिष्ठान, औद्योगिक घराने, कॉरपोरेट-समूह या केन्द्रित शासन-तन्त्र का नियन्त्रण, स्वामित्व या आधिपत्य बिल्कुल नहीं होना चाहिए। ये सब तृणमूल पर अवस्थित लोकसमुदायों (People’s Communities at the Grass-roots) के साँझा संसाधन हैं।
परमात्मा ने प्राकृतिक संसाधनों के रूप में जो धरती या धरोहर दुनिया को सौंपी है वह सिर्फ़ मानव-जाति के लिए नहीं, बल्कि समस्त चेतन के लिए भी है। किसी अधिपति, सत्ता-प्रतिष्ठान या कारोबारी समूह को उस पर अधिकार जतलाना सर्वथा प्रकृति-विरुद्ध है। प्राकृतिक सम्पदा या जैव विविधता निजी सम्पत्ति नहीं है, वह हमें विरासत में मिली है और वह आगे आने वाली सन्ततियों या पीढ़ियों के लिए भी है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरण का यह सिलसिला अन्तहीन रूप में चलते रहना चाहिए।
ज़मीन की मिल्कियत
भूमि समेत समस्त प्राकृतिक संसाधन जनगण के निमित्त हैं। अतः सच्चे अर्थों में उनका सामुदायीकरण, स्वदेशीकरण या स्थानीयकरण होना चाहिए; न कि सरकारीकरण, केन्द्रीकरण या बहुराष्ट्रीयकरण (कम्पनीकरण/कॉरपोरेटीकरण/वैश्वीकरण)। जब हम ज़मीन की बात करते हैं, तब उसका आशय सिर्फ़ धरातल नहीं होता; बल्कि उसका तात्त्विक, व्यावहारिक या प्रचलित अर्थबोध है --धरती के ऊपर और उसके भीतर विद्यमान समस्त प्राकृतिक संसाधन। ज़मीन को उसके सम्पूर्ण स्वरूप में लेना होगा। ज़मीन की मिल्कियत वैयक्तिक, राज्यगत या कॉरपोरेट-सन्निहित नहीं रहनी चाहिए; बल्कि उस पर पड़ोसी, ग्रामीण एवं देशज समुदायों अर्थात् प्राथमिक प्रत्यक्ष स्थानिक लोक-समुदायों (Primary face-to-face local people’s communities) का मालिकाना हक़ हो।
अमानतदारी या न्यासधारिता (Trusteeship) की व्यवस्था में हालाँकि एकाधिपत्य (Monopoly), विशेषाधिकार (Privilege) और निजी स्वामित्व (Private ownership) के लिए कोई गुंजाइश नहीं है ; फिर भी उतनी कृषि योग्य भूमि किसान के पास रहनी ही चाहिए जिस पर वह खुद अपने परिजनों संग खेतीबाड़ी, बागवानी एवं पशु-परिचर्या कर सके। जो ज़मीन को स्वयं जोत-बो सके, उस पर फ़सलें उगा सके, जैव विविधता एवं उर्वराशक्ति को अक्षुण्ण रख सके, उसकी सहायता से पशुपालन कर सके यानी कुल मिलाकर जो धरती को अपनी माँ माने और उसे सुजला-सुफला एवं शस्यश्यामला रखे; ऐसे किसान के पास कम से कम इतनी ज़मीन अवश्य होनी चाहिए जिससे उसे ईमान की रोटी और इज़्ज़त की ज़िन्दगी मयस्सर हो सके।
धरती से जितना लिया जाय, कम से कम उसे उतना लौटाया भी जाय। हर सम्भव कोशिश रहनी चाहिए कि उसे हम सवाया लौटायें। कहने का मतलब यह है कि कृषि-कर्म सजीव या सेन्द्रिय (Organic) और प्राकृतिक होना चाहिए। खेती-किसानी में प्रयुक्त होने वाले श्रम-सघन (Labour-intensive), समुचित (Appropriate) और पर्यावरण-हितैषी (Environment-friendly) साज़ो सामान या यन्त्रोपकरण सुलभ होने चाहिए जिन्हें स्थानीय कारीगर, मिस्त्री, शिल्पकार या तकनीशियन तैयार करें। ऊर्जा के प्रायः सभी साधन नवीकरणीय (Renewable), विकेन्द्रित (Decentralised), स्थानिक (Local) और यथासम्भव स्वच्छ (Clean) होना चाहिए।
किसान के पास खेती लायक़ इतनी ज़मीन अवश्य होनी चाहिए जो उसके लिए रोज़ी-रोज़गार, भरण-पोषण या जीवन-यापन का भरोसेमन्द, सम्मानजनक और सम्यक् साधन बने। जो ज़मीन से जुड़े किसान हैं, अगर वे चाहें, तो बराबरी के स्तर पर मिल-जुल करके आपसी समझदारी, सहभागिता और सहयोगशीलता से खेती में सहकारिता या सामूहिकता का प्रयोग कर सकते हैं। ऐसे किसी भी प्रयोग में ज़ोर-ज़बरदस्ती, अनिच्छा या अन्यमनस्कता के लिए कोई स्थान नहीं रहेगा। सारा प्रयोग चलेगा -- स्वेच्छा, स्वतःप्रेरणा, स्वयंस्फूर्ति, सूझबूझ और एकजुटता से। ऐसे ही प्रयोग की संकल्पना पशुपालन के क्षेत्र में भी की जा सकती है।
कृषि-भूमि बनाम औद्योगिक या कारोबारी आस्थान (Sites)
प्रचलित विकास-मॉडल पूँजी-प्रौद्योगिकी प्रधान, उद्योगमूलक, कॉरपोरेट-संचालित, बाज़ारनिष्ठ, लाभ-केन्द्रित और भूमण्डलीकृत है। बड़े-बड़े औद्योगिक संयन्त्रों व संकुलों, हाईटेक् टाउनशिपों, प्रौद्योगकी-पार्कों, कारोबारी अड्डों या ठौर-ठिकानों, विश्व-स्तरीय (World-class) संस्थानों, भीमकाय अवसंरचनात्मक प्रकल्पों (Large infrastructural projects), दानवाकार विनिर्माण-नाभिचक्रों (Mega manufacturing hubs) यानी भाँति-भाँति के बृहदाकार उपक्रमों या प्रतिष्ठानों -- इन सभी को विस्तीर्ण भू-क्षेत्र चाहिए। प्रायः ये सब-के-सब बहु-फ़सली, उम्दा, उपजाऊ व सिंचित खेतिहर ज़मीनों के साथ ही, घनी आबादियों और बाग-बगीचों या वनाच्छादित क्षेत्रों को लीलने पर आमादा हैं। इसके चलते बड़े पैमाने पर पड़ोसी या स्थानीय समुदायों, किसानों, कामगारों, मज़दूरों, कारीगरों, मिस्त्रियों, बुनकरों, शिल्पकारों, आदिवासियों, गिरिजनों, वनोपजीवियों, मछुआरों, पिछड़े व दलित तबक़ों अर्थात् देशज या मूल निवासियों को विस्थापन-दर-विस्थापन की त्रासदी या विभीषिका झेलनी पड़ रही हैं द्रुत विकास, केन्द्रित उद्योगवाद, अनियन्त्रित शहरीकरण और मदान्ध प्रौद्योगिकीय संजाल के नाम पर कृषि-भूमि का अधिग्रहण, पर्यावरण का विनाश, प्राकृतिक संसाधनों का क्षरण, परम्परागत आजीविका-स्रोतों व रोज़गार-प्रदाता साधनों का विलोपन, स्थानीय जीवन-शैली का विसर्जन, लोकविद्या का ह्रास, सामुदायिक व सामाजिक सम्बन्धों का पराभव, पारिस्थितिकीय असन्तुलन का विस्तार, व्यापक दृष्टि का अभाव -- ये सब देखने को मिल रहा है।
अब यह प्रश्न उठ खड़ा होता है कि फिर सार्वजनिक महत्त्व और उपयोग की परियोजनाएँ आख़िर लगेंगी कैसे? भूमि समेत समस्त प्राकृतिक संसाधन स्थानिक लोकसमुदायों के निमित्त ईश्वर-प्रदत्त हैं। अगर उनमें रहने वाले लोग आम राय से यह तय करते हैं कि इलाक़ाई स्तर पर उपलब्ध प्राकृतिक पूँजी-सम्पदा के युक्तिसंगत व विवेकसम्मत इस्तेमाल से व्यापक लोकहित के निमित्त कोई संयन्त्र उनके क्षेत्र में खड़ा होना चाहिए, तो वे सब स्वेच्छा से अपनी ज़मीनें देंगे। इस प्रकार वह उनका अपना ही उपक्रम होगा जो उनके स्वयं के अभिक्रम, सहकार और संगठन से चलेगा। यहाँ ‘लोगों द्वारा उत्पादन’ (Production by the masses) का सूत्र केन्द्र-बिन्दु बनेगा। उल्लेखनीय है कि कॉरपोरेट-संचालित भूमण्डलीकरण विकास-मॉडल में ‘केन्द्रित बहुमात्र उत्पादन’ (Centralised mass production) का स्थान नाभिक (Nucleus) जैसा है। जो इलाक़ाई परियोजनाएँ होंगी, वे जनगण (People) की होंगी। वे समुदाय, समाज या राष्ट्र के व्यापक हित में चलेंगी; न कि बाज़ार-अधिग्रहण, साम्राज्य-विस्तार या अर्थसत्ता-केन्द्रीकरण की ख़ातिर। राजसत्ता का यह दायित्व होगा कि वह परियोजनाओं के निमित्त आवश्यक पूँजी, प्रौद्योगिकी, विशेषज्ञता, व्यवस्था आदि का इंतज़ाम करे लेकिन, परियोजनाएँ लोगों की होंगी, सरकारी नहीं। यह ‘पब्लिक सेक्टर’ और ‘प्राइवेट कॉरपोरेट सेक्टर’ से आगे का स्वराजोन्मुख और स्वदेशीमूलक विचार एवं प्रयोग होगा। वहाँ दरअसल चक्र-प्रवर्तन होगा -- ‘जनगण’ ¼People½ सेक्टर का, जनगण-नीत सामुदायिक (Communitarian) सेक्टर का यानी लोक स्वराज की दिशा में प्रयाण के निमित्त सामुदायिक प्रकल्पों के शिलान्यास की श्रृंखला चल पड़ेगी।
चौतरफ़ा संकटों से घिरी है, खेती-किसानी !
हमारी खेती-किसानी गहरी आपदा के दौर से गुज़र रही है। देश के अधिकांश खेतिहर इलाक़ों में किसान आत्महत्या करने को मज़बूर कर दिये गये हैं। बाज़ारी ताक़तों बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और सरकारी एजेंसियों ने उनकी क़मर तोड़ दी है। फ़सलों के वाजिब, यथेष्ट या लाभकारी मूल्य सुनिश्चित किये जाने की बात तो दूर की कौड़ी साबित हो चुकी है, किसान लागतों से काफ़ी नीचे उतर कर अपनी उपज बेचने के लिए मज़बूर कर दिये गये हैं।
किसान भारी क़र्ज़ों के बोझ तले कराह रहे हैं। सरकारी बैंकों से ज़्यादा उन पर ग़ैर संस्थागत साहूकारों, महाजनी लूटख़ारों, सूदख़ोर माइक्रोफाइनैंस कम्पनियों और बेलगाम ग़ैर बैंकिंग संस्थाओं के भारी क़र्ज़ चढ़े हुए हैं। हालाँकि देश के बैंकों को डुबाने का ठीकरा किसानों के मत्थे फोड़ा जा रहा है जबकि बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों, कॉरपोरेट-समूहों या कारोबारी गिरोहों ने बैंकों को भारी चपत लगायी है जिसके चलते वे डूबने के कगार पर हैं। उन्हें डूबने से बचाने के लिए सरकार राशि-राशि पूँजी या जनता की गाढ़ी कमाई उनमें झोंक रही है।
खेती में निवेश की जाने वाली ढेर-सारी चीज़ें और इस्तेमाल की जाने वाली मशीनें देशी-विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ बना रही हैं। वे बेहद महँगी और ख़र्चीली हैं जिनके चलते खेतिहर उपजों या जिंसों की उत्पादन-लागतें बेतहाशा बढ़ती जाती हैं। इसके साथ ही, कोढ़ में खाज यह है कि एग्री बिज़नेस कॉरपोरेशन विकसित देशों से भारी मात्रा में सस्ते अनाज और खाद्य पदार्थ हमारे यहाँ डम्प करते देखे जाते हैं। इधर किसान कड़ी मेहनत-मशक़्क़त करके, गाढ़ी कमाई फूँक करके अथवा कर्ज़दार बन करके जो फ़सलें उगा रहे हैं, जो अनाज पैदा कर रहे हैं; उन्हें औने-पौने दामों पर लाचारी से बेचने को वे मज़बूर हैं। हाट-बाज़ार में कारोबारियों, दलालों, माफ़िआओं, सरगनाओं और कम्पनी बहादुरों द्वारा किसानों की चौतरफ़ा लूट जारी है। सभी खिलाड़ियों ने किसानों को लूटने की ख़ातिर गिरोहबन्दी कर रखी है।
अर्थव्यवस्था, ज़िन्दगी और संवृद्धि (Growth) के पहिये को चालना, रफ़्तार या त्वरा देने के नाम पर एक्सप्रेस वे, बहु-लेनी राजमार्ग, कॉरिडार, शहर निर्माण-विकास-विस्तार, कारोबारी कॉम्प्लेक्स, औद्योगिक संयन्त्र, हाई-टेक् टाउनशिप, विनिर्माण, नाभिचक्र, प्रौद्योगिकी-पार्क, विदेशी अन्तःक्षेत्र (Foreign enclaves), विश्वस्तरीय (World-class) विशेष-उद्देशीय प्रकल्प, बृहदाकार बहु-धन्धी व्यावसायिक अड्डे या ठौर-ठिकाने आदि तेज़ी से आसुरी आकार लेते जा रहे हैं और लीलते जा रहे हैं -- खेत-खलिहान, रिहाइशी इलाक़े, छोटे-मझोले हाट-बाज़ार, जल-स्रोत, वन-क्षेत्र, गिरि-कानन आदि। कहा जा रहा है कि वे सब हमारे देश के विभिन्न क्षेत्रों को एक कड़ी में पिरोयेंगे यानी उन्हें परस्पर जोड़ेंगे, कारोबार में सुगमता आयेगी, ‘एक देश, एक बाज़ार’ होगा साकार, सारी दूरियाँ आनन-फानन में तय होंगी और कृषि-क्षेत्र में स्वर्ण-युग आयेगा। लेकिन, दरअसल वे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के औपनिवेशिक मकड़जाल को बुनने यानी कॉरपोरेट-नीत भूमण्डलीकरण के फ़ौलादी ढाँचे को गढ़ने के सुनियोजित षड़्यन्त्र में संलिप्त हैं। अन्तरराष्ट्रीय गल्ला कारोबारियों, एग्री बिज़नेस/एग्रीटेक् कॉरपोरेशनों, मुनाफ़ाख़ोर सटोरियों यानी जटिल बाज़ार-तन्त्र के कुटिल खिलाड़ियों की गिद्ध दृष्टि हमारी खेती-किसानी पर गड़ी हुई है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ हमारी कृषि को अपनी कठपुतली बनाना चाहती हैं। सरकारें उनके सामने घुटने टेकती गयी हैं। कीटनाशी पदार्थों, रासायनिक उर्वरकों, खेतिहर यन्त्रोपकरणों, जैव प्रौद्योगिकी या जेनेटिक इंजीनियरिंग द्वारा जीन-रूपान्तरित बीजों (Genetically modied or genetically engineered seeds : GM/GE seeds) या खेती बाड़ी के अधुनातन वैज्ञानिक या जैव प्रौद्योगिकीय उपायों, माध्यमों या तौर-तरीक़ों पर मुट्ठी-भर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का एकाधिकार क़ायम होता गया है। खेती में आत्मनिर्भरता, विविधता, स्थानिकता या प्रकृति-परायणता ख़त्म होती गयी है। किसी विशेष क्षेत्र में केवल एक फ़सल उगाने का चलन (Monoculture) बढ़ता गया है। उद्योग की तर्ज़ पर चल रही है, कृषि। पूँजी-प्रधान उद्योग के नक़्शेक़दम पर तेज़ी से आगे बढ़ते जाने के चलते कृषि-क्षेत्र में भारी निवेशों और बेलगाम बाज़ारों का बोलबाला है। प्राकृतिक संसाधनों के निर्मम दोहन, बड़े-बड़े यन्त्रों के अन्धाधुन्ध इस्तेमाल, ज़हरीले रसायनों के अनापशनाप प्रयोग और कॉरपोरेट-नियन्त्रित बेरहम बाज़ारों पर बढ़ते अवलम्बन के फलस्वरूप खेती-किसानी का मूल चरित्र बदल-सा गया है। वह अब संस्कृति या प्रकृति का अंग नहीं रही, बल्कि वह अनर्थशास्त्र के शिकजे में जकड़ी हुई है।
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के साम्राज्य-विस्तार और प्रभूत मुनाफ़े को सुनिश्चित करने के लिए किसानों को कृषि-क्षेत्र से बेदख़ल करने की तैयारी ज़ोर-शोर से शुरू हो चुकी है। ‘किसानों द्वारा खेती’ (Peasant farming) के दिन अब ढलान पर हैं। ‘अनुबन्ध या ठेका खेती’ (Contract farming) से गुज़रते हुए आखि़रकार ‘कॉरपोरेट फार्मिंग’ (Corporate farming) में उसका रूपान्तरण करने की मुहिम अब तेज़ी पकड़ चुकी है। कृषि-क्षेत्र किसानों से खिसककर एग्रीबिज़नेस कॉरपोरेशनों के हाथों में सिमटने जा रहा है। विश्व व्यापार संगठन यानी डब्ल्यूटीओ (WTO : World Trade Organisation) का जो ‘कृषि पर समझौता’ (AoA : Agreement on Agriculture) है, उसे चोटी के एग्रीबिज़नेस कॉरपोरेशनों ख़ासकर कॉरगिल (Cargill) से जुड़े विशेषज्ञों और अधिकारियों ने तैयार किया था।
देशी-विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ और दुनिया-भर की सरकारें पूरी ताक़त लगा रही हैं कि किसानों से खेतिहर ज़मीनें हर हाल में अधिग्रहीत कर ली जायँ। जो अकूत ‘आभासी पूँजी’ (Virtual capital) कॉरपोरेट-समूहों, निवेशक कारोबारियों यानी आज के ‘कम्पनी बहादुरों’ के पास है, उसे ‘असली पूँजी’ (Real capital) में बदलने का एकमेव कारगर, भरोसेमन्द या प्रभावी तरीक़ा है कि ज़मीनें ख़रीदी जायँ। खेतीबाड़ी लुट रही है। ऊपर से वहाँ घाटा ही घाटा है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मुनाफ़े और साम्राज्य को बढ़ाने के लिए सरकारों द्वारा जो नीतियाँ बनायी जा रही हैं या अमल में लायी जा रही हैं, उनके चलते किसान दुर्दशाग्रस्त हैं। बहुत मज़बूरी में वे खेतीबाड़ी कर रहे हैं। ‘गले मढ़ी ढोल, बजायेन ते भले’ वाली कहावत उन पर अक्षरशः लागू हो रही है। अगर उन्हें वैकल्पिक रोज़गार मिल जाय, तो वे खेतों की तरफ़ निहारना भी नहीं चाहेंगे। ज़मीन और खेती के प्रति किसानों की मोह-ममता दिनोंदिन कमज़ोर पड़ती जा रही है। ये हालात बेहद ख़तरनाक और डरावने हैं। बाज़ार-भावों से कई गुने ज़्यादा मुआवज़ों के प्रावधान से वे ज़मीन छोड़ते जा रहे हैं। उन्हें ऐसा लगता है कि ‘बला छूटी’ यानी ‘आँख फूटी, पीर गयी’। खेती-किसानी की कब्रगाह पर आबाद हो रही हैं ---कॉरपोरेट-नगरियाँ, मायापुरियाँ और भाँति-भाँति की ‘इन्फ्रास्ट्रक्चर’-परियोजनाएँ।
खेती-किसानी को लौटना होगा, अपनी जड़ों की तरफ़ !
खेती-किसानी अपने मूल उद्देश्यों से एकदम भटक गयी है। वह लोगों को ऐसे खाद्य एवं पेय पदार्थों को मुहैया नहीं करा पा रही है जो मानव-स्वास्थ्य, जीवन्त पर्यावरण और सतत विकास की दृष्टि से निरापद, पोषक, गुणकारी और ग्राह्य हो। माटी, जल, वायुमण्डल और भूगर्भ --सबमें कॉरपोरेट-नियन्त्रित विकास-मॉडल के चलते ज़हर घुलता जा रहा है, सब कुछ देखते-देखते विषाक्त बनता जा रहा है। सेहत, ज़िन्दगी, जैव विविधता, पारिस्थितिकी, प्रकृति और सोच -- सब पर प्रदूषण, क्षरण या असन्तुलन का संघाती प्रकोप जारी है और हम हाथ पर हाथ धरे बैठे हुए हैं। बीज-विविधता, खाद, सिंचाई, ऊर्जा, भण्डारण-व्यवस्था, मशीनरी, फ़सलों में लगने वाले रोगों व कीड़े-मकोड़ों की रोकथाम, पौधों-फ़सलों-उपजों की देखभाल और अच्छी पैदावार लेने की जुगत के लिए खेती-किसानी को बाहरी एजेंसियों, विदेशी कम्पनियों और बाज़ारी ताक़तों पर निर्भरता के बजाय आन्तरिक संसाधनों के जरिये स्वावलम्बन की डगर पकड़नी होगी। अधुनातन विज्ञान-प्रौद्योगिकी की मदद लेते हुए अपनी ज़रूरतों, परिस्थितियों एवं महत्त्वाकाँक्षाओं के अनुरूप खेतिहर जनगण को देशज परम्परागत कृषि-सम्बन्धी प्रविधियों, प्रणालियों, पद्धतियों और प्रक्रियाओं को माँजना, सुधारना या सँवारना होगा। इस चुनौतीपूर्ण काम में कृषि से जुड़े शिक्षण एवं शोध संस्थानों, देश के वित्तीय प्रतिष्ठानों और सरकार के सम्बन्धित विभागों व उपक्रमों को किसानों का साथी-संगी बनना होगा। ध्यान रहे कि क़दम-क़दम पर पर्यावरण के साथ शत्रुतापूर्ण, हिंसक या आक्रामक रुख़ नहीं; बल्कि सहजीवन, साहचर्य या सुमेल का स्वस्थ दृष्टिकोण कृषि-कर्म में अपनाना पड़ेगा।
खेतीबाड़ी कभी हमारे यहाँ समूची अर्थव्यवस्था, संस्कृति और ज़िन्दगी की धुरी हुआ करती थी। उद्योग-धन्धे उसके द्वारा पैदा किये गये कच्चे माल और आसपास उपलब्ध प्राकृतिक संसाधन पर पलते-बढ़ते या फलते-फूलते थे। कृषि और प्रकृति की मिली-जुली कृपा, सहायता या वदान्यता के चलते औद्योगिक गतिविधियाँ संचालित हो रही थीं। कृषि की अनुषंगी इकाई के रूप में विनिर्माण का चक्र चल रहा था। आज उद्योग ने कृषि को विस्थापित करके अर्थव्यवस्था के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नियामक स्थल यानी नाभिक पर क़ब्ज़ा जमा रखा है। उद्योग की एक सब्सिडियरी या शाखा के रूप में कृषि का पराभव हो चुका है। संकट की जड़ें दरअसल यहाँ है। फिर से कृषि को संस्कृति, अर्थव्यवस्था और ज़िन्दगी की धुरी बनाना होगा। उद्योग कृषि को हड़पेगा नहीं, बल्कि उसका अनुचर होगा। शहर गाँव को लीलेंगे नहीं, बल्कि उसकी सम्प्रभुता, स्वाधीनता, अस्मिता या गरिमा का सदैव सम्मान करेंगे। खेती बाड़ी अधिसंख्य ग्रामीण जनों को रोज़ी-रोटी, ज़िन्दगी और इज़्ज़त दे सकती है। इसके साथ ही, वह शहरी लोगों और उद्योग-धन्धों में कार्यरत जनों का भी भरण-पोषण कर सकती है। कृषि-कर्म मानवता का मूल धर्म है। वह स्वदेशी, स्वराज और सामुदायिक जीवन की मूल प्रकृति है।
पूर्ण स्वराज की ओर ले जायेगा, कृषि स्वराज !
पूर्ण स्वराज वह समग्र विचार-दर्शन है जिसमें शुद्ध, शान्तिमय एवं सत्यान्वेषी उपायों से एक ऐसे समाज-निर्माण का संकल्प सन्निहित है जो समतामूलक, शोषणमुक्त, सहकारयुक्त, संवेदनशील और गत्यात्मक है तथा जिसमें जन-जन को ईमान की रोटी, इज़्ज़त की ज़िन्दगी, सघन सांस्कृतिक संस्पर्श की आत्मीयता, सामुदायिक सहजीवन की अन्योन्याश्रयिता, हँसती-खेलती प्रकृति की मनोहारिणी सुषमा तथा मानव-सम्बन्धों की गर्मजोशी की सुनिश्चितता बनी रहेगी। नयी समाज-रचना का जो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सूत्र है वह यह है कि उसकी इकाइयों में बाहरी दबाव, हस्तक्षेप, वर्चस्व या अतिक्रमण के लिए गुंजाइश घटती जायेगी तथा ग़ुलाम बनाने वाले औपनिवेशिक बन्धन टूटते जायेंगे। बुनियादी इकाइयों में हद दर्जे तक स्वावलम्बन रहेगा, लेकिन पड़ोसी इकाइयों का एक झुण्ड परस्परावलम्बन की डोर से गुँथा हुआ होगा। इस प्रक्रिया से एक बड़ी इकाई बनेगी। इस प्रकार इन बड़ी इकाइयों से बृहत्तर इकाई बनेगी। ये बृहत्तर इकाइयाँ अपेक्षाकृत और बड़ी बृहत्तर इकाई में संघबद्ध होंगी। अनुक्रमेण यह ढाँचा मंजिल-दर-मंजिल (Tier-by-tier) संघबद्ध होता हुआ अन्ततोगत्वा एक देश का स्वरूप ग्रहण करेगा।
आज का कॉरपोरेट-केन्द्रित विकास-मॉडल औद्योगीकरण, शहरी ढाँचे और प्रौद्योगिकीय साज़ोसरंजाम पर टिका हुआ है जिसमें शास्त्रास्त्रों का संहारक उद्योग अहम रोल निभाता है। उसका लक्ष्य है भूमण्डलीकरण यानी बाज़ारवाद, पुनरौपनिवेशीकरण (Recolonisation) एवं कम्पनी राज और परिणाम है, मानव एवं पर्यावरण का विनाश। उसके विकल्प के तौर पर नया मॉडल गढ़ना होगा। उसके केन्द्र में होगी, कृषि व प्रकृति। उनसे जुड़े होंगे, छोटे-मझोले उद्योग-धन्धे और कारोबार। इस सामुदायिक मॉडल का संरक्षण एवं संचालन करेगी, लोकशक्ति (People’s power)। देश में जो उद्योगप्रधान कॉरपोरेट-संचालित मॉडल चल रहा है वह रोज़गार-रहित संवृद्धि (Jobless growth) का वाहक होने के साथ ही, रोज़गार-भक्षी संवृद्धि (Jobloss growth) का पर्याय भी बन चुका है। इसलिए वह घोर अनर्थकारी है। उसका विसर्जन किये बगैर मानवता, सृष्टि व प्रकृति का उद्धार सम्भव नहीं। कृषि प्रधान, प्रकृति मूलक और समुदाय-आधारित मॉडल का सूत्रपात करना होगा जो लोकशक्ति-संचालित होगा। उसके कुछ क़दम होंगे -- गाँव-गाँव में विकेन्द्रित ढंग से स्थानीय स्तर पर पैदा की जाने वाली बिजली हो जो बायोमास/सौर/पवन/पन ऊर्जा से प्राप्त होती हो। इस बिजली की मदद से छोटे-छोटे उद्योग-धन्धे, वर्कशाप व कारोबार चलेंगे जो खेती-किसानी से संजीवनी शक्ति प्राप्त करेंगे। खेती-किसानी भी अपने पाँवों पर खड़ी होगी, प्रकृति के साथ अविरोध-भाव रखेगी तथा उसका चरित्र जैविक एवं स्थानिक होगा।
प्राकृतिक संसाधनों के बारे में शाश्वत विकास- मॉडल की दृष्टि एकदम साफ़-सुथरी रही है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि प्राकृतिक संसाधन मूलतः प्रकृतिजन्य हैं। इसलिए उन पर किसी बाहरी सत्ता, सरकार या कम्पनी का एकाधिपत्य, विशेषाधिकार या नियन्त्रण नहीं हो सकता क्योंकि उनकी जन्मदात्री, पालनकर्मी एवं स्वामिनी स्वयमेव प्रकृति है। दरअसल प्रकृति ने उन्हें मानव-जाति को धरोहर के रूप में सौंपा है। इसलिए मनुष्य उनकी देखभाल करने वाला भर है, मालिक हर्गिज़ नहीं। प्राकृतिक संसाधनों को हमें बकासुर की भाँति चट नहीं कर जाना है बल्कि अनवरत रूप में उनकी उपलब्धता आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए सर्वथा सुनिश्चित एवं संरक्षित की जानी चाहिए। इस दृष्टि से तृणमूल स्तर पर (At the grass-roots level) संस्थित जन-समुदायों के पास अपने-अपने अधिकार-क्षेत्र में विद्यमान प्राकृतिक संसाधनों पर सम्प्रभुता, सिद्धान्ततः, अमानत या धरोहर के रूप में रहेगी।
स्थानीय समुदाय सम्यक् तरीक़े से प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल इस रूप में कर सकेंगे कि अपशिष्ट या अवशिष्ट द्रव्यों का यथाशक्य पुनश्चक्रण (Recycling), पुनः शोधन (Retreatment) या सार्थक रूपान्तरण होता रहे। साथ ही, यह दृष्टि अनिवार्यतः हमेशा बनी रहनी चाहिए कि मानवता, सृष्टि या पृथिवी के लिए प्राकृतिक संसाधनों की उत्तरजीविता (Sustainability) हर हाल में अक्षुण्ण रखी जायेगी। स्थानिक समुदायों की सर्वानुमति के बिना उनके अधिकार-क्षेत्र में अवस्थित प्राकृतिक संसाधन किसी के द्वारा भी नहीं लिये जा सकते। प्राकृतिक संसाधनों का युक्तिसंगत उपयोग व्यापक लोकहित में कैसे किया जाय, इसका निर्णय लोग अपने स्थानीय समुदायों में करेंगे।
आज के दौर में सटोरिया पूँजी (Speclative capital) अर्थव्यवस्था को अपनी उँगलियों के इशारे पर नचा रही है जबकि उत्पादक पूँजी हाशिये पर ढकेल दी गयी है। वित्तीयकरण (Financialisation) का दायरा बढ़ता जा रहा है और वास्तविक अर्थतन्त्र (Real economy) सिकुड़ता जा रहा है। वित्तीयकरण की आँधी और सटोरिया पूँजी की माया ने विश्व व्यवस्था की चूलें हिला कर रख दी हैं। पूँजी बाज़ार (Capital market) का तिलिस्म हमारे मनोमस्तिष्क पर इस कदर छाया हुआ है कि वह भी रह-रह कर द्यूत-क्रीडा, सट्टेबाज़ी की जुगाली या मंदी-तेज़ी की जुगलबन्दी करने में मशगूल हो जाता है। ऐसे में दुनिया के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद द्वारा कही गयी मार्के की एक बड़ी बात का उल्लेख नितान्त आवश्यक हो जाता है -- ‘अक्षैर्मा दीव्यः, कृषमित्कृषस्व’ (10/34/13) अर्थात् जुआ मत खेलो, खेती करो। कृषि सम्यग् आजीविका की सम्पूर्ण विधा व व्यवस्था है। वह प्रकृति की आत्मजा है। वह उद्योग-धन्धे के लिए आवश्यक सम्बल की अजस्र स्रोतस्विनी है। पालतू पशुओं के लिए वह आहार-विहार जुटाती है।
ज़रूरत इस बात की है कि खेती-किसानी को अर्थव्यवस्थाआ के नाभिक पर संस्थित किया जिससे सामुदायिक स्वराज का चक्र-प्रवर्तन हो। सामुदायिक स्वराज पूर्ण स्वराज की कुंजी है।
स्वराज-संरचना की बुनियादी इकाइयाँ गाँव या पड़ोसी समुदाय (Neighbourhood communities) हैं, जहाँ स्थानिक परिवेश में कृषि-बागवानी-पशुपालन, कारीगर-दस्तकारी-शिल्पकर्म, मानव-श्रम संग विशिष्ट कला-कौशल पर आधारित उत्पादन; तथा आसपास उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों की अक्षुण्णता या उत्तरजीविता बरक़रार रखते हुए उनके विवेकसम्मत या युक्तिसंगत उपयोग पर टिका होगा, स्वदेशीमूलक आर्थिक ढाँचा व तानाबाना। उत्पादन के साधन यथासम्भव छोटे-छोटे होंगे, किन्हीं विशेष परिस्थितियों में अपवाद स्वरूप मझोले या बड़े हो सकेंगे। ज़्यादातर छोटी-छोटी कर्मशालाओं (Workshops) में श्रम-सघन तकनीकों, प्रविधियों, कलाओं एवं युक्तियों के संयोग व प्रयोग से अधिकांशतः स्थानीय आबादियों के उपभोग के लिए उत्पादन होगा। ऊर्जा के क्षेत्र में स्वावलम्बन ध्येय रहेगा। शिक्षा, सेहत, सफ़ाई एवं जागरूकता से जगमगाते रहेंगे, हमारे गाँव या समुदाय। गन्दगी, बीमारी, गरीबी, ग़ैर बराबरी, बदहाली और क़िल्लत से निजात पानी होगी। कृषि स्वराज, संसाधन स्वराज या सामुदायिक स्वराज का मूलमन्त्र है कि स्थानीय इलाक़ों से देशज कच्चे माल या विविधता-भरी प्राकृतिक पूँजी-सम्पदा का बहिर्गमन न होने पाये, वहीं पर उनका प्रशोधन या प्रसंस्करण किया जाय यानी उन्हें विनिर्मित पक्के माल में रूपान्तरित किया जाय। तृणमूल पर अवस्थित स्थानीय आबादियाँ अपने आसपास बनी चीज़ों का इस्तेमाल करें, वे बाहर के या दूरोदराज़ के केन्द्रीकृत कल-कारखानों या औद्योगिक प्रतिष्ठानों में बने सामानों की मण्डियों के रूप में तब्दील न होने पायें, तभी स्वराज की दिशा में कूच करना सम्भव होगा। स्वराज का एक पहलू यह भी है कि लोग जहाँ रह रहे हैं, वहीं उनके लिए सार्थक या सोद्देश्य रोज़गार के विपुल अवसर होंगे जिनमें सम्मान या गौरव के भाव अन्तर्निहित होंगे। स्थानीय समुदायों से लोगों के पलायन या विस्थापन के मूलभूत कारणों को दूर करना होगा। यह रोज़मर्रा की बात है कि शहर-शहर में चौराहे-चौराहे पर भारी संख्या में गाँव-गिराँव से आये हुए लोग दिहाड़ी मज़दूरी पाने के लिए अलस्सबाह जमा हो जाते हैं और ‘लेबर मार्केट’ सज जाते हैं, इन अनगिनत ग्रामीण जनों की आवक से। औद्योगिक संकुलों, विनिर्माण-नाभिचक्रों, महानगरों या बृहन्नगरों से चल रहे उत्पादन-संयन्त्रों, बहुधन्धी प्रकल्पों या कारोबारी अड्डों में अपनी ज़मीनों व जड़ों से कट चुके लोग मर-खप रहे हैं। कहाँ मयस्सर है उन्हें स्वराज की प्रतीति या सर्जना की सुखानुभूति!
(लेखक अर्थशास्त्री एवं समाजकर्मी हैं। आप आज़ादी बचाओ आन्दोलन के राष्ट्रीय संयोजक हैं।)