- Fri 16/Apr/2021
- azadibachaoandolan@naiazadi.com / 9455421101
(आजादी बचाओ आन्दोलन की नींव 5 जून 1989 को इलाहाबाद विश्वविद्यालय के गाँधी भवन में बुद्धिजीवियों, समाजकर्मियों और युवाओं द्वारा सम्पूर्ण क्रान्ति दिवस के उपलक्ष्य में आयोजित एक बैठक में पड़ी थी और लोक स्वराज अभियान नाम से दो वर्ष आन्दोलन चलता रहा और इसके मासिक मुखपत्र ‘नई आजादी उद्घोष’ का प्रकाशन भी आरम्भ हो गया। इसका पहला सम्मेलन सेवाग्राम (वर्धा) में 7-8 जनवरी, 1991 को हुआ जिसमें देश के बुद्धिजीवियों, वैज्ञानिकों, पत्रकारों, समाजकर्मियों, गाँधीवादी और समाजवादी चिन्तकों ने भाग लिया। उस सम्मेलन में आन्दोलन का नाम ‘आजादी बचाओ आन्दोलन’ तय हुआ और आन्दोलन की दिशा तय करने के लिए एक सामूहिक घोषणा हुई जो ‘सेवाग्राम घोषणा’ के नाम से प्रसिद्ध हुई। नीचे उसका मूल पाठ का सार प्रस्तुत है)।
बहुराष्ट्रीय गुलामी में जकड़े भारत की तस्वीर
विदेशी कर्जों के बोझ तले दम तोड़ती अर्थव्यवस्था, बड़े-बड़े उद्योगों के भयावह पंजों में मक्खियों की तरह मसल उठे परम्परागत लघु और कुटीर उद्योग, महँगे उर्वरकों एवं कीटनाशकों की वजह से महँगी और बाजार का मुँह ताकती खेती, 35 करोड़ बेरोजगार नौजवान, कमरतोड़ महँगाई से परेशान उपभोक्ता, नशाखोर जमीन, जहरीले खाद्यान्न, हवा और पानी, नष्ट होते जंगल, उजड़ते लोग और टूटता समाज, पसरती अपसंस्कृतियाँ और मूल्यहीनता, निज के समाज से कटी टूटी और किन्हीं इतर जीवनमूल्यों को ढोने वाली शिक्षा व्यवस्था, बाह्य शक्तियों के इशारे पर लिए जाने वाले राजनीतिक और आर्थिक निर्णय, दुनिया की कम्पनियों के आगे बिकी सरकारें और विकलांग लोकतन्त्र और इससे भी कहीं बहुत भयावह शायद अकल्पनीय यह तस्वीर है भारत की जो कोई 300 साल पहले दुनिया का सबसे समृद्ध राष्ट्र था। सबसे बड़े निर्यातक से सबसे बड़े आयातक देश की श्रेणी में आए इस भारत की आर्थिक नीतियाँ यहाँ की सरकारें नहीं तय करतीं बल्कि विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के इशारे पर उनके मूल देशों की सरकारें, विश्व बैंक और अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष तय करते हैं। इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के फैले उपनिवेशवादी जाल से हमारी राजनीतिक सम्प्रभुता, आर्थिक स्वायत्तता और सांस्कृतिक अस्मिता खतरे में पड़ गई है। देश पर फिर से बहुराष्ट्रीय गुलामी लद गई है।
बाजारवाद पर टिका विकास
दरअसल यह सब कुछ उस व्यापक विश्व अर्थव्यवस्था की संरचना का अंश और एक मायने में परिणाम है, जो पहले यूरोप की औद्योगिक क्रान्ति ने और फिर दूसरे विश्व युद्ध के बाद उभरे महाबली अमेरिका ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पूरी दुनिया पर थोप दिया। देशों की गुलामी और लूट, प्रकृति के दोहन पर टिका बाजारवाद ही विकास का मॉडल बन गया।
विशाल उद्योगों के पहियों पर दौड़ने वाले विकास के इस मॉडल ने एकाएक उन देशों को आर्थिक पिछड़ा घोषित कर दिया जो प्राकृतिक सम्पदायुक्त और आत्मनिर्भर थे तथा जहाँ विकास की एक भिन्न गति थी। इस नए आर्थिक नव साम्राज्यवाद की वाहक पश्चिमी स्थूल सत्ता न होकर वे निगमें थीं जो नव स्वाधीन देशों की अर्थव्यवस्था को अपने कब्जे में करने के लिए अपना सूक्ष्मतम जाल बुन रही थीं। भारत समेत दुनिया के तमाम नव स्वाधीन देशों ने इस मॉडल को अपनाया तथा प्रतिपक्ष में बराबरी पर खड़ा होने की प्रतिस्पद्र्धा में रूस ने भी इसी मॉडल को अपनाया। विश्व आर्थिक वृत्त की परिधि पर बिन्दुवत् टिके इन अविकसित देशों का अर्थ संरचना के नाम पर अपना कुछ नहीं बचा रह गया है जबकि वृत्त के केन्द्र के विकसित देश इन देशों के संसाधनों का निरंतर अबाध दोहन कर अपनी अर्थव्यवस्थाओं को समृद्ध बना रहे हैं।
उपनिवेशवाद नए रूपों में
(क) विश्व बैंक और अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष- उपनिवेशवाद के अनेक नए रूपों में विश्व बैंक और अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का महत्वपूर्ण स्थान है। ये बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का राज्य स्थापित करने हेतु प्रतिबद्ध हैं तथा इन पर अमेरिका और उसके सहयोगी औद्योगीकृत देशों का कब्जा है। इन्हीं संस्थाओं की एकतरफा शर्तों के दबाव में आकर वर्तमान सरकार ने नए आर्थिक नीतिगत एवं संरचनात्मक परिवर्तन स्वीकार किए हैं। यह इन देशों का हमारी राष्ट्रीय सम्प्रभुता पर खुला कुठाराघात है।
(ख) समझौतों का कुचक्र- विकसित देशों के तथाकथित विकसित ज्ञान और प्रौद्योगिकी के आकर्षण के फलस्वरूप बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा भारत को विश्व बाजार से जोड़ने के अभियान में अनेक एकपक्षीय, द्विपक्षीय एवं बहुपक्षीय समझौतों की महत्वपूर्ण भूमिका है। इनमें गैट के उरुग्वे चक्रवार्ता और अमरीकी स्पेशल 301 के अन्तर्गत वार्ता प्रमुख है।
गैट- वस्तुतः गैट का उरुग्वे वार्ताचक्र तीसरी दुनिया के देशों को बराबरी के स्तर पर अन्तरराष्ट्रीय प्रतिस्पद्र्धा को रोकने का कुचक्र है। यह यथार्थ में विश्व की तीन आर्थिक महाशक्तियों अमरीका, यूरोपीय आर्थिक समुदाय और जापान के बीच चल रहे व्यापारिक युद्ध का मंच है जिसमें पिस रहे हैं तीसरी दुनिया के गरीब देश। खुली अर्थव्यवस्था और सार्वभौमीकरण के नाम यह भारत जैसे देशों पर बहुराष्ट्रीय एवं बहुपक्षीय हमला है जिसका मुख्य उद्देश्य विशेषतः अमरीकी कम्पनियों के लिए इन देशों के बाजार को सुरक्षित करना है। ट्रिम्स (TRIMs) और ट्रिप्स (TRIPs) के माध्यम से एकाधिकार प्राप्त कर इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का भारत के आर्थिक और औद्योगिक अन्तरिक्ष पर पूर्ण कब्जा करने का इरादा है। भारतीय कृषि के क्षेत्र में गैटवार्ता का प्रभाव होगा हमारी खेती की स्थायी गुलामी। पौधों के प्रजनन एवं अनुसन्धान पर पेटेन्ट कानून लादने की जो कोशिश चल रही है यदि भारत इसके सामने झुकता है तो इसके गम्भीर परिणाम होंगे। यह कैसी विडम्बना है कि स्वावलम्बी कृषि नीति को गैट वार्ता में व्यापार विरोधी घोषित किया जा रहा है।
अमरीकी स्पेशल 301- भारतीय पेटेन्ट कानूनों विशेषतः बौद्धिक सम्पदा कानूनों में भारी परिवर्तन कराने के लिए, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों पर लगे शेष प्रतिबंधों को हटाने के लिए तथा पेटेंट सम्बन्धी पेरिस समझौते पर भारत के हस्ताक्षर कराने के लिए अमेरिका अपने व्यापार अधिनियम 1988 की धारा स्पेशल 301 के तहत भारत की बाँह मरोड़ रहा है। यदि भारत इन शर्तों को नहीं स्वीकार करता तो अमेरिका की दंडात्मक कारवाई की योजना है। वर्तमान सरकार इन दबावों के आगे झुकती जा रही है।
दो प्रमुख अन्तरराष्ट्रीय घटनाएँ- पूर्वी यूरोप एवं साम्यवादी रूसी व्यवस्था के ढह जाने के बाद इन देशों द्वारा बाजार अर्थव्यवस्था के अपनाने और 27 देशों की बहुराष्ट्रीय सेनाओं द्वारा ईराक पर हमले ने शोषण और लूट पर आधारित बाजार अर्थव्यवस्था की आक्रामकता को बढ़ावा दिया है।
(ग) पर्यावरण सम्बन्धी उपनिवेशवाद- ग्रीन हाउस प्रभाव या सार्वभौमिकतापन से पर्यावरण के विभत्स खतरों के लिये सर्वाधिक जिम्मेदार अमेरिका और अन्य औद्योगीकृत विकसित देशों ने चोरी और सीनाजोरी (अन्तरराष्ट्रीय गुण्डागर्दी) का बेमिसाल उदाहरण पेश करते हुए इसके लिए मुख्यतः जिम्मेदार तीसरी दुनिया के देशों को ठहराया है। इनमें भारत, चीन, ब्राजील का नाम पहले पाँच अपराधियों में है। इन देशों को विश्व पर्यावरण की रक्षा की जिम्मेदारी वहन करते हुए जुर्माना देना पड़ेगा।
(घ) विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर एकाधिकार- मानव सभ्यता के विकास में आने वाली अड़चनों को समझने और हल करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले विज्ञान और तकनीक पर विकसित कहलाने वाले बड़े देशों की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का कब्जा है। जहाँ एक ओर घिसी-पिटी तकनीक के भारतीय आयात की बात है वहीं दूसरी और परमाणु विकिरण रिसाव के खतरे, तकनीक एवं महँगे डिजाइनों पर आधारित बड़े बाँधों की त्रासदी, बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा बेंचे जा रहे कृषि रसायन कीटनाशक दवाओं एवं नए परिष्कृत बीजों के खतरे अत्यन्त ही विभत्स हैं। भोपाल गैस त्रासदी की भयावहता इसका ज्वलन्त उदाहरण है। गरीब देशों के लिए तकनीक की उपयुक्तता के प्रश्न को पीछे छोड़ते हुए हमारी सरकारें तकनीक आयात और औद्योगीकीकरण के नाम पर उन क्षेत्रों में बहुराष्ट्रीय निगमों को बुलावा दे रही है जिनमें अधुनातन व विशिष्ट तकनीक की कोई आवश्यकता नहीं है। बड़ी बहुराष्ट्रीय निगम हिन्दुस्तान लीवर, बाटा, ब्रुकबाँड, कैडबरी, कोलगेट, पामोलिव, पेप्सी, कोक आदि ऐसे ही क्षेत्रों में अपना व्यापार कर रही हैं।
(ङ) औद्योगिक क्षमता की नीलामी- दुष्परिणामों पर ध्यान दिए बिना और जिस तरह भारतीय सार्वजनिक उद्योगों पर निष्क्रियता और अफसरशाही के आरोप लगा कर इनकी राष्ट्रीय आर्थिक विकास के प्रति जवाबदेही की संरचना तैयार करने और कार्य संस्कृति का विकास करने की बजाय सरकार इन्हें नीलाम कर बहुराष्ट्रीय निगमों के हवाले कर रही है। यह गुलामी की चरम स्थिति है।
(च) गुलाम हो चुकी कृषि व्यवस्था- बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की गुलाम कृषि उत्पादन प्रणाली के आधुनिकीकरण के दिखावे में उत्पाद वृद्धि की बात तो की जाती है पर गुणवत्ता और रचनात्मकता की गिरावट पर एकदम ध्यान नहीं दिया जाता। आधुनिकीकरण और व्यावसायीकरण के मकड़जाल में भारतीय किसानों की जान बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा उत्पादित महँगे उपकरणों एवं रसायन सामग्री को खरीदने में निकल चुकी हैं। इससे एक तरफ तो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को अकूत आय हो रही है तथा दूसरी ओर निरन्तर गरीबी भयावह रूप लेती जा रही हैं। न सिर्फ कृषिशोध वरन् नए किस्मों के बीजों की आपूर्ति के लिए भी हम अमेरिका और यूरोपीय बहुराष्ट्रीय निगमों के ऊपर निर्भर हैं जिनका मूल उद्देश्य अपनी आर्थिक सम्प्रभुता हेतु कृषि जीन्सों का अन्तरराष्ट्रीय व्यापार करना है। स्वभावतः इस प्रक्रिया में मूल भारतीय जीन्स एवं परम्परागत उत्पादन प्रणाली पूर्ण समाप्ति के कगार पर है। देश के जैविक भण्डार के समाप्त होने पर हम कृषिशोध के लिए पूर्णतः बहुराष्ट्रीय निगमों के गुलाम और मुहताज हो जायेंगे।
(छ) मानव स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़- दवाओं के नाम पर जहर, स्वास्थ्य टानिकों के नाम पर सोयाबीन और मूंगफली की खली, सूखा दूध या जौ का आटा और कभी-कभी तो जानवरों का खून तक देने वाली ये बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भारत की गरीब जनता के साथ मौत का व्यापार कर रही हैं। दुनिया के तमाम विकसित तथा अविकसित देशों में अपने जानलेवा असर के कारण प्रतिबन्धित अनेक सैकड़ों दवाइयाँ हमारे यहाँ बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा हजारों ब्राँड नामों से बनाई जा रही हैं। वॉलन्टरी हेल्थ एसोसिएशन ऑफ इण्डिया के अनुसार बहुराष्ट्रीय कम्पनियां प्रतिवर्ष 1800 करोड़ से ज्यादा मुनाफा प्रतिबन्धित तथा प्रतिबन्धयोग्य दवाइयों को बेच कर कमाती हैं। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने इस देश के डॉक्टरों तथा मेडिकल प्रैक्टिशनरों को अपनी दवाइयाँ बेचने के लिए घूस व कमीशन देकर पथभ्रष्ट और कर्तव्यभावना से हीन तो बनाया ही है साथ ही इस देश के बच्चों से दूध, दही व मक्खन छीन कर तथा उसकी टाफी व चाकलेट बना कर सम्पन्न वर्ग के बच्चों में बेचा जा रहा है। उन्हें उनके स्वास्थ्य के लिए विटामिन की गोलियों और तथाकथित स्वास्थ्यवर्द्धक टानिकों पर निर्भर बना दिया है।
(ज) बेरोजगारी- आँकड़े गवाह हैं कि भारतीय रेल में पाँच लाख लोगों की छँटनी के साथ-साथ बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की मार से सभी क्षेत्रों में बेरोजगारी तेजी से बढ़ रही है।
(झ) सांस्कृतिक साम्राज्यवाद- कृत्रिम इच्छाओं और भोग विलासिता को जगाकर निकृष्ट कोटि की संस्कृति को गरीब देशों में ठूँसने का काम इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने बखूबी किया है। बुद्धिजीवियों ने पश्चिम की ओर इतनी श्रद्धा और अनुकरण की दृष्टि से देखा मानो वही प्रगति का आदर्श हो। नतीजा सामने है-भटकते युवकों के दिमाग पर सेक्स और हिंसा का जुनून पागलपन की हद तक उतरने लगा है और नारी सिर्फ बाजार की बिकाऊ वस्तु बन गई है।
बहुराष्ट्रीय गुलामी का मकड़जाल- तीसरी दुनिया के 90 फीसदी बाजार पर काबिज ये बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ लूट और भ्रष्टाचार की हर सीमा को तोड़ रही हैं। गरीब देशों की विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और नौकरशाही पूरी तरह बिकाऊ सिद्ध रही है। ऐसे में स्वतन्त्रता और सम्प्रभुता खतरे में है। अमेरिका भूख और भोजन की चाल में कामयाब रहा है जिसमें एक ओर उसने इन देशों की खेती को नष्ट किया और दूसरी ओर अन्न बेचकर उन्हें कर्ज के जाल में भी उलझा दिया। ब्राजील, भारत, नाइजीरिया आदि तमाम देशों की अर्थव्यवस्थाएं चरमरा गई हैं। आय का वितरण निरन्तर असमान हो रहा है, भ्रष्टाचार सर चढ़ कर बोल रहा है और विकास के नाम पर पनप रहा नवधनाढ्य वर्ग काले धन को हड़प कर रहा है। फिर भी हमारे शीर्षस्थ अर्थशास्त्री विकास की दुहाई दिये बगैर नहीं रहते। रोजगार मिले या न मिले, गरीबी मिटे या न मिटे, बस सकल राष्ट्रीय उत्पाद बढ़ना चाहिए। इस अनर्थशास्त्र की यही विडम्बना है।
वैकल्पिक व्यवस्था की ओर
इसमें कोई शक नहीं है कि जिस बहुराष्ट्रीय उपनिवेशवाद में हम बुरी तरह फँस चुके हैं वह ब्रितानी शासन की गुलामी से कहीं बदतर है और हमारी सरकार इस उपनिवेशवाद के सपनों को साकार कर रही है। इसलिए आजादी की यह लड़ाई नव साम्राज्यवादी शक्तियों के साथ-साथ अपने ही देश के उन उद्योगपतियों व सत्ताधीशों के खिलाफ भी है जो इनका हित साधन कर रहे हैं। ये कम्पनियाँ निश्चय ही शोषण के कुचक्र का नियोजन और नेतृत्व कर रही हैं।
हमें इस शोषण से मुक्त उस आत्मनिर्भर समाज की रचना करनी है जिसमें हर व्यक्ति को ईमान की रोटी और इज्जत की जिन्दगी की गारन्टी हो। आजकल विकास के नये शब्द-उदारीकरण और वैश्वीकरण, औपनिवेशीकरण के ही दूसरे नाम हैं, जिसका अर्थ है गरीब मुल्कों में बदहाली, भुखमरी और मुट्ठी भर लोगों का विकास।
इसलिए अब पहले से चले आ रहे अन्तरराष्ट्रीय व्यापार के औपनिवेशिक ढाँचे को तोड़ कर पूँजीसघन क्षेत्रों के बजाय श्रमसघन क्षेत्रों में उत्पादन को बढ़ाना होगा और स्वदेशी वस्तुओं के होते अनावश्यक आयात पर पाबन्दी लगानी होगी तब देश भर में विकेन्द्रित उत्पादन तथा स्वावलम्बन के साथ ही लोकतान्त्रिक संस्थाओं में जन जन की भागीदारी सुरक्षित की जा सकेगी। शोषण के आधुनिक रूप में प्रौद्योगिकी एक बड़ा हथियार है। इसके जरिये बहुराष्ट्रीय निगमें हमारे बाजारों पर कब्जा करती हैं। हमें इस गुलामी की टेक्नोलाॅजी को बाहर करके स्वदेशी का विकास करना होगा जो आवश्यकता के हिसाब से ही उत्पादन करें, अनावश्यक श्रम की बचत करे और मनुष्य व पर्यावरण के बीच रागात्मक सम्बन्ध की स्थापना करे।
आज विकसित देश हमें निर्यात बढ़ा कर विकास करो की सीख दे रहे हैं और अपने यहाँ की गैर बुनियादी वस्तुओं को अल्पविकसित देशों की मंडियों में खपा रहे हैं। हमारी वैकल्पिक व्यवस्था में पूर्ण रोजगार, उत्पादक उपभोक्ता के बीच शोषणमुक्त सम्बन्ध और मूलभूत आवश्यकता का उत्पादन आदि प्रमुख अंग होंगे। छोटे व स्वतन्त्र उत्पादन की कीमत पर बड़े पैमाने पर उत्पादनों को बढ़ावा कतई नहीं दिया जायेगा। वास्तव में सब उत्पादन सामूहिकता व सहकारिता पर आधारित होगा।
कच्चे माल का निर्यात बहुत ही कम मात्रा में होगा बल्कि उसे स्वयं ही बेहतर व ज्यादा रोजगार उपलब्ध कराने के लिए प्रयोग किया जायेगा। इसमें बहुराष्ट्रीय निगमों से सहयोग का अर्थ है अपनी आर्थिक स्वायत्तता और राजनीतिक सम्प्रभुता को खो बैठना। सामान्य तौर पर खेती की उपज का प्रशोधन होकर उपभोग योग्य वस्तु के रूप में यानी कच्चा माल पक्का बन कर ही गांव से बाहर जायेगा। इससे गाँव के कला कौशल तो पनपेंगे ही, खेती पर बढ़ता दबाव भी कम होगा। वर्तमान अर्थव्यवस्था में तो तीसरी दुनिया के तमाम देश स्वयं कृषिप्रधान होने पर भी विकसित देशों से खाद्यान्न आयात कर रहे हैं। पूँजी का बहाव गरीब देशों से अमीर देशों की ओर है। ऐसे में स्वदेशी को ही मूलतन्त्र बनाना होगा।
नई आजादी की लड़ाई में आगे आयें
इस प्रकार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के रूप में दुश्मन हमारे सामने हैं और जब सरकारें उनके आगे घुटने टेक रही हैं व उनकी एजेन्ट बन चुकी हैं जाहिर है इन कम्पनियों को भगाने की लड़ाई हमें यानी किसानों, मजदूरों, छात्रों, बुद्धिजीवियों, व्यापारियों, कर्मचारियों को स्वयं लड़नी होगी। इसका कोई लघुमार्ग नहीं है।
अहिंसा के अस्त्र को लेकर हम जिस समाज की रचना करेंगे उसमें बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के देशी पुछल्लों का तो अन्त होगा ही सामन्तवाद के अवशेष और अपसंस्कृति का भी हमेशा के लिए अन्त होगा। नयी व्यवस्था में हर किसान को उसकी उपज का उचित मूल्य मिलेगा। भूमि सुधार को लागू करके भूमिहीन खेतिहर मजदूरों का ध्यान रखा जायेगा। कारीगरों के कौशल और वैज्ञानिकों की प्रतिभा का आत्मनिर्भर उपयोग हो सकेगा।
आंचलिक गैरबराबरी के कारण देश में विघटन और तनाव का माहौल व्याप्त है। हमारे आन्दोलन में मुनाफाखोरों की मार को सहते दलितों, महिलाओं और पिछड़े वर्गों की पूर्ण भागीदारी होगी।
आदिवासियों की संस्कृति के उदात्त पक्षों की रक्षा करते हुए ‘सभ्य समाज’ द्वारा उन पर हो रहे अत्याचार का पुरजोर मुकाबला किया जायेगा। प्रकृति के मूर्खतापूर्ण दोहन पर कड़ा अंकुश लगाने के लिए संघर्ष किया जायेगा।
विपथगामी सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का पूरा विरोध करना होगा।
हमारी व्यवस्था में उत्पादन गाँव-गाँव में होगा। कान्वेन्टीकरण से मुक्त शिक्षा की गारन्टी होगी और आम आदमी का जीवन प्रतिष्ठापूर्ण होगा। इसके अलावा हम तीसरी दुनिया के शोषण विरोधी आन्दोलनों में उनका साथ देंगे क्योंकि हमारी लड़ाई का निशाना एक है। इसके लिए सभी वर्गों के लोगों को निजी हितों से निकल कर आगे आना होगा। देश के किसानों, मजदूरों, बुद्धिजीवियों, ट्रेड यूनियनों, आदिवासियों, छात्रों, महिलाओं से हमारी अपील है कि वे नई आजादी का ऐलान करें। पचास साल पहले 1942 में ‘अंग्रेजों: भारत छोड़ो’ का चैतरफा आन्दोलन छिड़ा था। ‘बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ: भारत छोड़ो’ उसी की अगली जोरदार हुँकार है।